आषाढ़ की यह उदास शाम बारिश में धुलकर आइने-सी चमकदार हो उठी है.काले-धूसर-श्वेत बादलों का एक-दूसरे से लिपटना , उलझना और फिर बिखर जाना नीले आकाश की पृष्ठभूमि में चल रहा प्रहसन लग रहा है जिसे देखकर पश्चिमी आकाश में झुक चला सूरज कभी हँस पड़ता है तो कभी मुंह ढँक लेता है संध्या के आँचल से. सामने के विस्तृत तालाब में साँपों की तरह लहराती वलयाकार तरंगें किनारों को भिगोकर पुनः जल में लौट रही हैं . खेतों में धान के आधे डूबे पौधों को छेड़ती-दुलराती हवा चली जा रही है एक ही दिशा में , फिर किसी दिन लौटने के लिए.
ऐसे में मेंड़ पर बैठा परदेशी मन दुहरा रहा है एक पुराने गीत की पंक्तियाँ जिसमें एक प्रेषित्पतिका पिय की पाती की प्रतीक्षा करते-करते थककर पुरवाई से विनती करती है कि तू ही ले जा मेरा यह आखिरी सन्देश और उस निष्ठुर से कह देना कि दिन गिनते-गिनते उंगली के पोर घिस गए हैं और जिस आँचल कि छाँव में तुमने जेठ कि तपती दोपहरी बितायी थी , वह तोतापंखी आँचल बेरंग हो गया है.
सूरज घर जाने की जल्दी में क्षितिज के पार जाकर ओझल हो चूका है. सांझ के मुरझाए चेहरे को अब और देख पाना संभव नहीं . मैं उदास मन लौटता हूँ घर को. शायद अपने अस्तित्व का एक अंश वहीँ छोडकर .